नैतिकता और युद्ध

 

नैतिकता

 

    तुम्हें नैतिकता को छोड़ देने का तब तक कोई अधिकार नहीं है जब तक कि अपने-आपको किसी भी नैतिक विधि-विधान से ऊंचे और बहुत अधिक कठोर विधान के आधीन न कर लो ।

२८ मई, १९४७

 

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    तुम नैतिक नियमों को तभी तोड़ सकते हो जब तुम भागवत विधान का पालन करो ।

 

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    दिव्य सत्य की दृष्टि से नैतिक नियमों का बहुत ही सापेक्ष मूल्य है । और फिर देश, काल और वातावरण के अनुसार उनमें बहुत भेद होते हैं ।

 

    वाद-विवाद प्राय: निष्फल और निष्प्रयोजन होते हैं । अगर हर एक पूर्ण सचाई, ईमानदारी और सद्‌भावना से व्यक्तिगत प्रयास करे तो काम के लिए सबसे अच्छी परिस्थितियां प्राप्त हो जायेंगी ।

अगस्त १९६६

 

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    कभी रूप-रंग के आधार पर निर्णय न करो, गप के आधार पर तो और भी नहीं ।

 

    जो एक देश में नैतिक है वही किसी और देश में अनैतिक ।

 

    भगवान् की सेवा आत्म-आहुति की ऐसी सचाई की मांग करती है जिसका किसी नैतिकता को पता भी नहीं है ।

२६ फरवरी १९६९

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